श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
अध्याय-1 : श्लोक-30
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।
मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं।
अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की इस दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी। भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है। भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्[2] – ऐसा भय तथा मानसिक असुंतलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं। अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी– वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा। निमित्तानि विपरीतानि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है तो वह सोचता है “मैं यहाँ क्यों हूँ?” प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है। किसी की भी परमात्मा में रुचि नहीं होती। कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है। मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है। बद्धजीव इसे भूल जाता है इसीलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न – नहीं; च – भी; शक्नोमि – समर्थ हूँ; अवस्थातुम् – खड़े होने में; भ्रमति – भूलता हुआ; इव – सदृश; च – तथा ; मे – मेरा; मनः – मन; निमित्तानि – कारण; च – भी; पश्यामि – देखता हूँ; विपरीतानि – बिलकुल उल्टा; केशव – हे केशी असुर के मारने वाले (कृष्ण)।
- ↑ (भागवत 11.2.37)
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