श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 758

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-29


बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ॥29॥[1]

भावार्थ

हे धनंजय! अब मैं प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार तुम्हें विभिन्न प्रकार की बुद्धि तथा धृति के विषय में विस्तार से बताऊँगा। तुम इसे सुनो।

तात्पर्य

ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता की व्याख्या प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन-तीन पृथक विभागों में करने के बाद अब भगवान कर्ता की बुद्धि तथा उसके संकल्प (धैर्य) के विषय में उसी प्रकार से बता रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बुद्धेः= बुद्धि का; भेदम्= अन्तर; धृतेः= धैर्य का; च= भी; एव= निश्चय ही; गुणतः= गुणों के द्वारा; त्रि-विधम्= तीन प्रकार के; शृणु= सुनो; प्रोच्यमानम्= जैसा मेरे द्वारा कहा गया; अशेषेण= विस्तार से; पृथक्त्वेन= भिन्न प्रकार से; धनंजय= हे सम्पत्ति के विजेता।

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