श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 364

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदानत स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-14


अननयचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।[1]

भावार्थ

हे अर्जुन! जो अननय भाव से निरनतर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।

तात्पर्य

इस श्लोक में उन निष्काम भक्तों द्वारा प्राप्तव्य अन्तिम गन्तव्य का वर्णन है, जो भक्तियोग के द्वारा भगवान की सेवा करते हैं। पिछले श्लोकों में चार प्रकार के भक्तों का वर्णन हुआ है– आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी। मुक्ति की विभिन्न विधियों का भी वर्णन हुआ है– कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा हठयोग। इस योग पद्धतियों के नियमों में कुछ न कुछ भक्ति मिली रहती है, लेकिन इस श्लोक में शुद्ध भक्तियोग का वर्णन है, जिसमें ज्ञान, कर्म या हठ का मिश्रण नहीं होता। जैसा की अनन्यचेताः शब्द से सूचित होता है, भक्तियोग में भक्त कृष्ण के अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करता। शुद्ध भक्त न तो स्वर्ग लोक जाना चाहता है, न ब्रह्मज्योति से तादात्म्य या मोक्ष या भवबन्धन से मुक्ति ही चाहता है। शुद्ध भक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता। चैतन्य चरितामृत में शुद्ध भक्त को निष्काम कहा गया है। उसे ही पूर्णशान्ति का लाभ होता गई, उन्हें नहीं जो स्वार्थ में लगे रहते हैं। एक ओर जहाँ ज्ञानयोगी, कर्मयोगी या हठयोगी का अपना-अपना स्वार्थ रहता है, वहीं पूर्णभक्त में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती। अतः भगवान कहते हैं कि जो एकनिष्ट भाव से उनकी भक्ति में लगा रहता है, उसे वे सरलता से प्राप्त होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अननय-चेताः – अविचलित मन से; सततम् – सदैव; यः – जो; माम् – मुझ (कृष्ण) को; स्मरति – स्मरण करता है; नित्यशः – नियमित रूप से; तस्य – उस; अहम् – मैं हूँ; सु-लभः – सुलभ, सरलता से प्राप्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; नित्य – नियमित रूप से; युक्तस्य – लगे हुए; योगिनः – भक्त के लिए।

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