श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 394

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-9


न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।[1]

भावार्थ

हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।

तात्पर्य

इस प्रसंग में यह नहीं सोच लेना चाहिए कि भगवान के पास कोई काम नहीं है। वे वैकुण्ठलोक में सदैव व्यस्त रहते हैं। ब्रह्मसंहिता[2] में कहा गया है– आत्मारामस्य तस्यास्ति प्रकृत्या न समागमः– वे सतत दिव्य आनन्दमय आध्यात्मिक कार्यों में रत रहते हैं, किन्तु इन भौतिक कार्यों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता। सारे भौतिक कार्य उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं। वे सदा ही इस सृष्टि के भौतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं। इस उदासीनता को ही यहाँ पर उदासीनवत कहा गया है। यद्यपि छोटे से छोटे भौतिक कार्य पर उनका नियन्त्रण रहता है, किन्तु वे उदासीनवत स्थित रहते हैं। यहाँ पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उदाहरण दिया जा सकता है, जो अपने आसन पर बैठा रहता है। उसके आदेश से अनेक तरह की बातें घटती रहती हैं–किसी को फाँसी दी जाती है, किसी को कारावास की सजा मिलती है, तो किसी को प्रचुर धनराशी मिलती है, तो भी वह उदासीन रहता है। उसे इस हानि-लाभ से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। वेदान्तसूत्र[3] में यह कहा गया है– वैषम्यनैर्घृण्ये न– वे इस जगत् के द्वन्द्वों में स्थित नहीं है। वे इन द्वन्द्वों से अतीत हैं। न ही इस जगत की सृष्टि तथा प्रलय में ही उनकी आसक्ति रहती है। सारे जिब अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते रहते हैं और भगवान इसमें कोई व्यवधान नहीं डालते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न–कभी नहीं; च–भी; माम्–मुझको; कर्माणि–कर्म; निबध्नन्ति–बाँधते हैं; धनञ्जय–हे धन के विजेता; उदासीन-वत्–निरपेक्ष या तटस्थ की तरह; आसीनम्–स्थित हुआ; असक्तम्–आसक्तिरहित; तेषु–उन; कर्मसु–कार्यों में।
  2. 5.6
  3. 2.1.34

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