श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 605

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-2


इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥2॥[1]

भावार्थ

इस ज्ञान में स्थिर होकर मनुष्य मेरी जैसी दिव्य प्रकृति (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार स्थित हो जाने पर वह न तो सृष्टि के समय उत्पन्न होता है और न प्रलय के समय विचलित होता है।

तात्पर्य

पूर्ण दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य भगवान से गुणात्मक समता प्राप्त कर लेता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। लेकिन जीवात्मा के रूप में उसका वह स्वरूप समाप्त नहीं होता। वैदिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि जो मुक्तात्माएँ बैकुण्ठ जगत में पहुँच चुकी हैं, वे निरन्तर परमेश्वर के चरणकमलों के दर्शन करती हुई उसकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगी रहती हैं। अतएव मुक्ति के बाद भी भक्तों का अपना निजी स्वरूप नहीं समाप्त होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इदम्= इस; ज्ञानम्= ज्ञान को; उपाश्रित्य= आश्रय बनाकर; मम= मेरा; साधर्म्‍यम्= समान प्रकृति को; जागताः= प्राप्त करके; सर्वे अपि= सृष्टि में भी; न= कभी नहीं; उपजायन्ते= उत्पन्न होते हैं; प्रलये= प्रलय में; न= न तो; व्यथन्ति= विचलित होते हैं; च= भी।

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