श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 733

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-4


निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: संप्रकीर्तित: ॥4॥[1]

भावार्थ

हे भरतश्रेष्‍ठ। अब त्‍याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो। हे नरशार्दूल। शास्‍त्रों में त्‍याग तीन तरह का बताया गया है।

तात्पर्य

यद्यपि त्याग के विषय में विभिन्न प्रकार के मत हैं, लेकिन परमपुरुष श्रीकृष्ण अपना निर्णय दे रहे हैं, जिसे अन्तिम माना जाना चाहिए। यह निस्सन्देश, सारे वेद भगवान द्वारा प्रदन्त विभिन्न विधान (नियम) हैं। यहाँ पर भगवान साक्षात् उपस्थित हैं, अतएव उनके वचनों को अन्तिम मान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में से जिस गुण में त्याग किया जाता है, उसी के अनुसार त्याग का प्रकार समझना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निश्चयम्= निश्चय को; शृणु= सुनो; मे= मेरे; तत्र= वहाँ; त्यागे= त्याग के विषय में; भरत= सत्= तम= हे भरतश्रेष्ठ; त्यागः= त्याग; हि= निश्चय ही ; पुरुष-व्याघ्र= हे मनुष्यों में बाघ; त्रि-विधः= तीन प्रकार का; सम्प्रकीर्तितः= घोषित किया जाता है।

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