श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 801

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-65


मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65॥[1]

भावार्थ

सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परमप्रिय मित्र हो।

तात्पर्य

ज्ञान का गुह्यतम अंश है कि मनुष्य कृष्ण का शुद्ध भक्त बने, सदैव उन्हीं का चिन्तन करे और उन्हीं के लिए कर्म करे। व्यावसायिक ध्यानी बनना ठीक नहीं। जीवन को इस प्रकार ढालना चाहिए कि कृष्ण का चिन्तन करने का सदा अवसर प्राप्त हो। मनुष्य इस प्रकार कर्म करे कि उसके सारे नित्य कर्म कृष्ण के लिए हों। वह अपने जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित करे कि चौबीसों घण्टे कृष्ण का ही चिन्तन करता रहे और भगवान की यह प्रतिज्ञा है कि जो इस प्रकार कृष्णभावनामय होगा, वह निश्चित रूप से कृष्णधाम को जाएगा जहाँ वह साक्षात कृष्ण के सान्निध्य में रहेगा। यह गुह्यतम ज्ञान अर्जुन को इसीलिए बताया गया, क्योंकि वह कृष्ण का प्रिय मित्र (सखा) है। जो कोई भी अर्जुन के पथ का अनुसरण करता है, वह कृष्ण का प्रिय सखा बनकर अर्जुन जैसी ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मत्-मनाः=मेरे विषय में सोचते हुए; भव=हो ओ; मत्=भक्तः=मेरा भक्त; मत्-याजी=मेरा पूजक; माम्=मुझको; नमस्कुरु=नमस्कार करो; माम्=मेरे पास; एव=ही; एष्यसि=आओगे; सत्यम्=सच-सच; ते=तुमसे; प्रतिजाने=वायदा या प्रतिज्ञा करता हूँ; प्रियः=प्रिय; असि=हो; मे=मुझको।

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