श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 603

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-35


क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥35॥[1]

भावार्थ

जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बन्धन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परमलक्ष्य प्राप्त होता है।

तात्पर्य

इस तेरहवें अध्याय का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को शरीर, शरीर के स्वामी तथा परमात्मा के अन्तर को समझना चाहिए। उसे श्लोक 8 से लेकर श्लोक 12 तक में वर्णित मुक्ति की विधि को जानना चाहिए। तभी वह परमगति को प्राप्त हो सकता है।

श्रद्धालु को चाहिए कि सर्वप्रथम वह ईश्वर का श्रवण करने के लिए सत्संगति करे, और धीरे-धीरे प्रबुद्ध बने। यदि गुरु स्वीकार कर लिया जाये, तो पदार्थ तथा आत्मा के अन्तर को समझा जा सकता है और वही अग्रिम आत्म-साक्षात्कार के लिए शुभारम्भ बन जाता है। गुरु अनेक प्रकार के उपदेशों से अपने शिष्यों को देहात्मबुद्धि से मुक्ति होने की शिक्षा देता है। उदाहरणार्थ- भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन को भौतिक बातों से मुक्त होने के लिए शिक्षा देते हैं।

मनुष्य यह तो समझ सकता है कि यह शरीर पदार्थ है और इसे चौबीस तत्त्वों में विश्लेषित किया जा सकता है; शरीर स्थूल अभिव्यक्ति है और मन तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव सूक्ष्म अभिव्यक्ति हैं। जीवन के लक्षण इन्हीं तत्त्वों की अन्तःक्रिया (विकार) हैं, किन्तु इनसे भी ऊपर आत्मा और परमात्मा हैं। आत्मा तथा परमात्मा दो हैं। यह भौतिक जगत आत्मा तथा चौबीस तत्त्वों में संयोग से कार्यशील है। जो सम्पूर्ण भौतिक जगत् की इस रचना को आत्मा तथा तत्त्वों के संयोग से हुई मानता है और परमात्मा की स्थिति को भी देखता है, वही बैकुण्ठ-लोक जाने का अधिकारी बन पाता है। ये बातें चिन्तन तथा साक्षात्कार की हैं। मनुष्य को चाहिए कि गुरु की सहायता से इस अध्याय को भली-भाँति समझ लें।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय ‘‘प्रकृति, पुरुष तथा चेतना’’ का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्षेत्र= शरीर; क्षेत्र-ज्ञयोः= तथा शरीर के स्वामी के; एवम्= इस प्रकार; अन्तरम्= अन्तर को; ज्ञान चक्षुषा= ज्ञानकी दृष्टि से; भूत= जीव का; प्रकृति= प्रकृति से; मोक्षम्= मोक्ष को; च= भी; ये= जो; विदुः= जानते हैं; यान्ति= प्राप्ति होते हैं; ते= वे, परम्= परब्रह्म को।

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