श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 436

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-8


अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।[1]

भावार्थ

मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उदभूत है। जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।

तात्पर्य

जिस विद्वान ने वेदों का ठीक से अध्ययन किया हो और भगवान चैतन्य जैसे अधिकारियों से ज्ञान प्राप्त किया हो तथा यह जानता हो कि इन उपदेशों का किस प्रकार उपयोग करना चाहिए, वही यह समझ सकता है कि भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के मूल श्रीकृष्ण ही हैं। इस प्रकार के ज्ञान से वह भगवद्भक्ति में स्थिर हो जाता है। वह व्यर्थ की टीकाओं से या मूर्खों के द्वारा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता। सारा वैदिक साहित्य स्वीकार करता है कि कृष्ण ही ब्रह्मा, शिव तथा अन्य समस्त देवताओं के स्त्रोत हैं। अथर्ववेद[2] में कहा गया है– यो ब्राह्मण विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च गापयति स्म कृष्णः– प्रारम्भ में कृष्ण ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान किया और उन्होंने भूतकाल में वैदिक ज्ञान का प्रचार किया। पुनः नारायण उपनिषद में (1) कहा गया है– अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयते– तब भगवान् ने जीवों की सृष्टि करनी चाही। उपनिषद् में आगे भी कहा गया है– नारायणाद् ब्रह्मा जायते नारायणाद् प्रजापतिः प्रजायते नारायणाद् इन्द्रो जायते। नारायणादष्टौ वसवो जायन्ते नारायणादेकादश रुद्रा जायन्ते नारायणाद्द्वादशादित्याः–“नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं, नारायण से इन्द्र और आठ वासु उत्पन्न होते हैं और नारायण से ही ग्यारह रुद्र तथा बारह आदित्य उत्पन्न होते हैं।” यह नारायण कृष्ण के ही अंश हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहम्–मैं; सर्वस्य–सबका; प्रभवः–उत्पत्ति का कारण; मत्तः–मुझसे; सर्वम्–सारी वस्तुएँ; प्रवर्तते–उद्भूत होती हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा–जानकर; भजन्ते–भक्ति करते हैं; माम्–मेरी; बुधाः–विद्वानजन; भाव-समन्विताः–अत्यन्त मनोयोग से।
  2. गोपालतापनी उपनिषद् 1.24

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