श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 627

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-19


नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परम वेत्ति मदूभावं सोऽधिगच्छति ॥19॥[1]

भावार्थ

जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता नहीं है और जब वह परमेश्वर को जान लेता है, जो इन तीनों गुणों से परे है, तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है।

तात्पर्य

समुचित महापुरुषों से केवल समझकर तथा समुचित ढंग से सीख कर मनुष्य प्रकृति के गुणों के सारे कार्यकलापों को लाँघ सकता है। वास्तविक गुरु कृष्ण हैं और वे अर्जुन को यह दिव्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। इसी प्रकार जो लोग पूर्णतया कृष्णभावना भावित हैं, उन्हीं से प्रकृति के गुणों के कार्यों के इस ज्ञान को सीखना होता है। अन्यथा मनुष्य का जीवन कुमार्ग में चला जाता है। प्रामाणिक गुरु के उपदेश से जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति, अपने भौतिक शरीर, अपनी इन्द्रियाँ, तथा प्रकृति के गुणों के अपनी बद्धावस्था होने के बारे में जान सकता है। वह इन गुणों की जकड़ में होने से असहाय होता है लेकिन अपनी वास्तविक स्थिति देख लेने पर वह दिव्य स्तर को प्राप्त कर सकता है, जिसमें आध्यात्मिक जीवन के लिए अवकाश होता है।

वस्तुतः जीव विभिन्न कर्मों का कर्ता नहीं होता। उसे बाध्य होकर कर्म करना पड़ता है, क्योंकि वह विशेष प्रकार के शरीर में स्थित रहता है, जिसका संचालन प्रकृति का कोई गुण करता है। जब तक मनुष्य को किसी आध्यात्मिक मान्यता प्राप्त व्यक्ति की सहायता नहीं मिलती, तब तक वह यह नहीं समझ सकता कि वह वास्तव में कहाँ स्थित है। प्रामाणिक गुरु की संगति से वह अपनी वास्तविक स्थिति समझ सकता है और इसे समझ लेने पर, वह पूर्ण कृष्णभावनामृत में स्थिर हो सकता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी प्रकृति के गुणों के चमत्कार से नियन्त्रित नहीं होता। सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि जो कृष्ण की शरण में जाता है, वह प्रकृति के कार्यों से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति वस्तुओं को यथारूप में देख सकता है, उस पर प्रकृति का प्रभाव क्रमशः घटता जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न= नही; अन्यम्= दूसरा; गुणेभ्यः= गुणों के अतिरिक्त; कर्तारम्= कर्ता; यदा= जब; द्रष्टा= देखने वाला; अनुपश्यति= ठीक से देखता है; गुणेभ्यः= गुणों से; च= तथा; परम्= दिव्य; वेत्ति= जानता है; मत्-भावम्= मेरे दिव्य स्वभाव को; सः= वह; अधिगच्छति= प्राप्त होता है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः