श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 325

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥[1]

भावार्थ

प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।

तात्पर्य

भगवान की शक्तियाँ अनन्त हैं और ये सारी शक्तियाँ दैवी हैं। यद्यपि जीवात्माएँ उनकी शक्तियों के अंश हैं, अतः दैवी हैं, किन्तु भौतिक शक्ति के सम्पर्क में रहने से उनकी परा शक्ति आच्छादित रहती है। इस प्रकार भौतिक शक्ति से आच्छादित होने के करण मनुष्य उसके प्रभाव का अतिक्रमण नहीं कर पाता। जैसा कि पहले कहा जा चुका है परा तथा अपरा शक्तियाँ भगवान से उद्भूत होने के करण नित्य हैं। जीव भगवान की परा शक्ति से सम्बन्धित होते हैं, किन्तु अपरा शक्ति पदार्थ के द्वारा दूषित होने से उनका मोह भी नित्य होता है। अतः बद्धजीव नित्यबद्ध है। कोई भी उसके बद्ध होने की तिथि को नहीं बता सकता। फलस्वरूप प्रकृति के चंगुल से उसका छूट पाना अत्यन्त कठिन है, भले ही प्रकृति अपराशक्ति क्यों न हो क्योंकि भौतिक शक्ति परमेच्छा द्वारा संचालित होती है। जिसे लाँघ पाना जीव के लिए कठिन है। यहाँ पर अपरा भौतिक प्रकृति को दैवीप्रकृति कहा गया है क्योंकि इसका सम्बन्ध दैवी है तथा इसका चालन दैवी इच्छा से होता है। दैवी इच्छा से संचालित होने के कारण भौतिक प्रकृति अपर होते हुए भी दृश्यजगत् के निर्माण तथा विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वेदों में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है– मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्– यद्यपि माया मिथ्या या नश्वर है, किन्तु माया की पृष्ठभूमि में परम जादूगर भगवान हैं, जो परम नियन्ता महेश्वर हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दैवी – दिव्य; हि – निश्चय ही; एषा – यह; गुण-मयी – तीनों गुणों से युक्त; मम – मेरी; माया – शक्ति; दुरत्यया – पार कर पाना कठिन, दुस्तर; माम् – मुझे; एव – निश्चय ही; ये – जो; प्रपद्यन्ते – शरण ग्रहण करते हैं; मायाम् एताम् – इस माया के; तरन्ति – पार कर जाते हैं; ते – वे।
  2. श्वेताश्वतर उपनिषद 4.10

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