श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 785

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-54


ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम् ॥54॥[1]

भावार्थ

इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।

तात्पर्य

निर्विशेषवादी के लिए ब्रह्मभूत अवस्था प्राप्त करना अर्थात ब्रह्म से तदाकार होना परम लक्ष्य होता है। लेकिन साकारवादी शुद्धभक्त को इससे भी आगे चलकर शुद्ध भक्ति में प्रवृत्त होना होता है। इसका अर्थ हुआ कि जो भगद्भक्ति में रत है, वह पहले ही मुक्ति की अवस्था, जिसे ब्रह्मभूत या ब्रह्म से तादात्म्य कहते हैं, प्राप्त कर चुका होता है। परमेश्वर या परब्रह्म से तदाकार हुए बिना कोई उनकी सेवा नहीं कर सकता। परमज्ञान होने पर सेव्य तथा सेवक में कोई अन्तर नहीं कर सकता, फिर भी उच्चतर आध्यात्मिक दृष्टि से अन्तर तो रहता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्म-भूतः= ब्रह्म से तदाकार होकर; प्रसन्न-आत्मा= पूर्णतया प्रमुदित; न= कभी नहीं; शोचति= खेद करता है; न= कभी नहीं; काड्क्षति= इच्छा करता है; समः= समान भाव से; सर्वेषु= समस्त; भूतेषु= जीवों पर; मत्-भक्तिम्= मेरी भक्ति को; लभते= प्राप्त करता है; पराम्= दिव्य।

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