श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 743

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-14


अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥14॥[1]

भावार्थ

कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा- ये पाँच कर्म के कारण हैं।

तात्पर्य

अधिष्ठानम शब्द शरीर के लिए आया है। शरीर के भीतर आत्मा कर्म करता है, जिससे कर्मफल होता है। अतएव यह कर्ता कहलाता है। आत्मा ही ज्ञाता तथा कर्ता है, इसका उल्लेख श्रुति में है। एष हि द्रष्टा स्रष्टा[2]। वेदान्तसूत्र में भी ज्ञोऽतएव[3] तथा कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्[4] श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है। कर्म के उपकरण इन्द्रियाँ हैं और आत्मा नहीं इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न कर्म करता है। प्रत्येक कर्म के लिए पृथक चेष्टा होती है। लेकिन सारे कार्यकलाप परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं, जो प्रत्येक हृदय में मित्र रूप में आसीन है। परमेश्वर परम कारण है। अतएव जो इन परिस्थितियों में अन्तर्यामी परमात्मा के निर्देश के अन्तर्गत कृष्णभावनामय होकर कर्म करता है, वह किसी कर्म से बँधता नहीं। जो पूर्ण कृष्णभावनामय हैं, वे अन्ततः अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते। सब कुछ परम इच्छा, परमात्मा, भगवान पर निर्भर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अधिष्ठानम्- स्थान; तथा- और; कर्ता- करने वाला; करणम्- उपकरण यन्त्र (इन्द्रियाँ); च- तथा; पृथक्- विधम्-विभिन्न प्रकार के; विविधाः- नाना प्रकार के; च- तथा; पृथक्-पृथक पृथक; चेष्टाः- प्रयास; दैवम्- परमात्मा; च- भी; एव- निश्चय ही; अत्र- यहाँ; पञ्चमम्- पाँचवा।
  2. प्रश्न उपनिषद् 4.9
  3. 2.3.18
  4. 2.3.33

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