श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 387

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।[1]

भावार्थ

हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अतः वे इस भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।

तात्पर्य

श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है, यही इस श्लोक का तातपर्य है। श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है। महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्वर में श्रद्धा नहीं रखते। वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते। इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है। चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो वह पूर्ण विश्वास है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा आरी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। यही वास्तविक श्रद्धा है। श्रीमद्भागवत में [2] कहा गया है:-

यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कंधभुजोपशाखाः।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथेव सर्वार्हणमच्युतेज्या।।

“वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहनियाँ तथा पत्तियाँ तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं। इसी तरह भगवान् की दिव्यसेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं।” अतः गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह गीता के इस निष्कर्ष को प्राप्त हो-मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़कर भगवान् कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। यदि वह इस जीवन-दर्शन से विश्वस्त हो जाता है, तो यही श्रद्धा हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अश्रद्यधानाः – श्रद्धाविहीन; पुरुषाः – पुरुष; धर्मस्य – धर्म के प्रति; अस्य – इस; परन्तप – हे शत्रुहन्ता; अप्राप्य – बिना प्राप्त किये; माम् – मुझको; निवर्तन्ते – लौटते हैं; मृत्युः – मृत्यु के; संसार – संसार में; वर्त्मनि – पथ में।
  2. श्रीमद्भागवत 4.31.14

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