श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 465

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-34


मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।[1]

भावार्थ

मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा हूँ।

तात्पर्य

ज्योंही मनुष्य जन्म लेता है, वह क्षण क्षण मरता रहता है। इस प्रकार मृत्यु समस्त जीवों का हर क्षण भक्षण करती रहती है, किन्तु अन्तिम आघात मृत्यु कहलाता है। यह मृत्यु कृष्ण ही है। जहाँ तक भावी विकास का सम्बन्ध है, सारे जीवों में छह परिवर्तन होते हैं- वे जन्मते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक संसार में रहते हैं, सन्तान उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं। इन छहों परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है और यह कृष्ण है। प्रथम उत्पत्ति ही भावी कार्यों का शुभारम्भ है।

यहाँ जिन सात ऐश्वर्यों का उल्लेख है, वे स्त्रीवाचक हैं- कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमा। यदि किसी व्यक्ति के पास ये सभी, या इनमें से कुछ ही होते हैं, तो वह यशस्वी होता है। यदि कोई मनुष्य धर्मात्मा है, तो वह यशस्वी होता है। संस्कृत पूर्ण भाषा है, अतः यह अत्यन्त यशस्विनी है। यदि कोई पढ़ने के बाद विषय को स्मरण रख सकता है तो उसे उत्तम स्मृति मिली होती है। केवल अनेक ग्रंथों को पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, किन्तु उन्हें समझकर आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रयोग मेधा या बुद्धि कहलाती है। यह दूसरा ऐश्वर्य है। अस्थिरता पर विजय पाना धृति या दृढ़ता है। पूर्णतया योग्य होकर यदि कोई विनीत भी हो और सुख तथा दुख में समभाव से रहे तो यह ऐश्वर्य क्षमा कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मृत्युः-मृत्यु; सर्व-हरः-सर्वभक्षी; च-भी; अहम्-मैं हूँ; उद्भवः-सृष्टि; च-भी; भविष्यताम्-भावी जगतों में; कीर्तिः-यश; श्रीः-ऐश्वर्य या सुन्दरता; वाक्-वाणी; च-भी; नारीणाम्-स्त्रियों में; स्मृतिः-स्मृति, स्मरणशक्ति; मेधा-बुद्धि; धृतिः-दृढ़ता; क्षमा-क्षमा, धैर्य।

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