श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-1
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे।
श्रीभगवान ने कहा– हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते, इसीलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
ज्यों-ज्यों भक्त भगवान के विषयों में अधिकाधिक सुनता है, त्यों-त्यों वह आत्मप्रकाशित होता जाता है। यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवत में इस प्रकार अनुमोदित है– “भगवान के संदेश शक्तियों से पूरित हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है, जब भक्त जन भगवान सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं। इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सान्निध्य से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि यह अनुभूत ज्ञान (विज्ञान) है।” भक्तगण परमेश्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं। भगवान उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं, जो कृष्णभावनाभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं। कृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी की ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात करे तो वह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा। कृष्ण अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परम गुह्य बातें बताते हैं जिन्हें इसके पूर्व उन्होंने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीभगवान उवाच – श्रीभगवान ने कहा; इदम् – इस; तु – लेकिन; ते – तुम्हारे लिए; गुह्य-तमम् – अत्यन्त गुह्य; प्रवक्ष्यामि – कह रहा हूँ; अनसूयवे – ईर्ष्या न करने वाले को; ज्ञानम् – ज्ञान को; विज्ञान – अनुभूत ज्ञान; सहितम् – सहित; यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; मोक्ष्यसे – मुक्त हो सकोगे; अशुभात् – इस कष्टमय संसार से।
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