श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-15
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। इस श्लोक में भक्त के कुछ अन्य गुणों का वर्णन हुआ है। ऐसे भक्त द्वारा कोई व्यक्ति कष्ट, चिन्ता, भय या असंतोष को प्राप्त नहीं होता। चूँकि भक्त सर्वों पर दयालु होता है, अतएव वह ऐसा कार्य नहीं करता, जिससे किसी को चिन्ता हो। साथ ही, यदि अन्य लोग भक्त को चिन्ता में डालना चाहते हैं, तो वह विचलित नहीं होता। यह भगवत्कृपा ही है कि वह किसी ब्राह्य उपद्रव से क्षुब्ध नहीं होता। वास्तव में सदैव कृष्णभावनामृत में लीन रहने तथा भक्ति में रत रहने के कारण ही ऐसे भौतिक उपद्रव भक्त को विचलित नहीं कर पाते। सामान्य रूप से विपयी व्यक्ति अपने शरीर तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी वस्तु को पाकर अत्यन्त प्रसन्न होता है, लेकिन जब वह देखता है कि अन्यों के पास इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐसी वस्तु है, जो उसके पास नहीं है, तो वह दुख तथा ईर्ष्या से पूर्ण हो जाता है। जब वह कुछ भी करने में सफल नहीं होता, तो निराश हो जाता है। ऐसा भक्त, जो इन समस्त उपद्रवों से परे होता है, कृष्ण को अत्यन्त प्रिय होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यस्मात्=जिससे; न=कभी नहीं; उद्विजते=उद्विग्न होते हैं; लोक:=लोग; लोकात्=लोगों से; न=कभी नहीं; उद्विजते=विचलित होता है; च=भी; य:=जो; हर्ष=सुख; अमर्ष=दुख; भय=भय; उद्वेगै:=तथा चिन्ता से; मुक्त:=मुक्त; य:=जो; स:=वह; च=भी; मे=मेरा; प्रिय:=प्रिय।
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