श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 784

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-51-53


तात्पर्य

जो मनुष्य बुद्धि द्वारा शुद्ध हो जाता है, वह अपने आपको सत्त्व गुण में अधिष्ठित कर लेता है। इस प्रकार वह मन को वश में करके सदैव समाधि में रहता है। वह इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता और अपने कार्यों में राग तथा द्वेष से मुक्त होता है। ऐसा विरक्त व्यक्ति स्वभावतः एकान्त स्थान में रहना पसन्द करता है, वह आवश्यकता से अधिक खाता नहीं और अपने शरीर तथा मन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है। वह मिथ्या अहंकार से रहित होता है क्योंकि वह अपने को शरीर नहीं समझता। न ही वह अनेक भौतिक वस्तुएँ स्वीकार करके शरीर को स्थूल तथा बलवान बनाने की इच्छा करता है। चूँकि वह देहात्मबुद्धि से रहित होता है अतएव वह मिथ्या गर्व नहीं करता। भगवत्कृपा से उसे जितना कुछ प्राप्त हो जाता है, उसी से वह संतुष्ट रहता है और इन्द्रियतृप्ति न होने पर भी कभी क्रुद्ध नहीं होता। न ही वह इन्द्रियविषयों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है। इस प्रकार जब वह मिथ्या अहंकार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तो वह समस्त भौतिक वस्तुओं से विरक्त बन जाता है और यही ब्रह्म की आत्म-साक्षात्कार अवस्था है। यह ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है। जब मनुष्य देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है, तो वह शान्त हो जाता है और उसे उत्तेजित नहीं किया जा सकता इसका वर्णन भगवद्गीता में[1] इस प्रकार हुआ है-  

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

  ‘‘जो मनुष्य इच्छाओं के अनवरत प्रवाह से विचलित नहीं होता, जिस प्रकार नदियों के जल के निरन्तर प्रवेश करते रहने और सदा भरते रहने पर भी समुद्र शांत रहता है, उसी तरह केवल वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरन्तर उद्योग करता रहता है।’’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.70

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