श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 370

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।[1]

भावार्थ

इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है। जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।

तात्पर्य

कृष्ण की पराशक्ति दिव्य और शाश्वत है। यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है, जो ब्रह्मा के दिन के समय व्यक्त और रात्रि के समय विनष्ट होती रहती है। कृष्ण की पराशक्ति भौतिक प्रकृति के गुण से सर्वथा विपरीत है। परा तथा अपरा प्रकृति की व्याख्या सातवें अध्याय में हुई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परः – परम; तस्मात् – उस; तु – लेकिन; भावः – प्रकृति; अन्यः – दूसरी; अव्यक्तः – अव्यक्त; अव्यक्तात् – अव्यक्त से; सनातनः – शाश्वत; यः सः – वह जो; सर्वेषु – समस्त; भूतेषु – जीवों के; नश्यत्सु – नाश होने पर; न – कभी नहीं; विनश्यति – विनष्ट होती है।

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