श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 255

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥[1]

भावार्थ

जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य

केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याण कार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है। जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण हि सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जो भी कर्म करता है सबों के हित को ध्यान में रखकर करता है। परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है। अतः समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याणकार्य है | कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्त न हो। कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिलकुल संदेह नहीं रहता। वह इसीलिए सन्देह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है। ऐसा है– यह दैवी प्रेम।

जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता। शरीर तथा मन की क्षणिक खुशी सन्तोषजनक नहीं होती। जीवन-संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्वर से अपने सम्बन्ध की विस्मृति में ढूँढा जा सकता है। जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति सचेष्ट रहता है जो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले हि वह भौतिक शरीर के जाल में फँसा हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लभन्ते – प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निर्वाणम् – मुक्ति; ऋषयः – अन्तर से क्रियाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः – समस्त पापों से रहित; छिन्न – निवृत्त होकर; द्वैधाः – द्वैत से; यत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार में निरत; सर्वभूत – समस्त जीवों के; हिते – कल्याण में; रताः – लगे हुए।

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