श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 242

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक-13

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पूरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥[1]

भावार्थ

जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।

तात्पर्य

देहधारी जीवात्मा नौ द्वारों वाले नगर में वास करता है। शरीर अथवा नगर रूपी शरीर के कार्य प्राकृतिक गुणों द्वारा स्वतः सम्पन्न होते हैं। शरीर की परिस्थितियों के अनुसार रहते हुए भी जीव इच्छानुसार इन परिस्थितियों के परे भी हो सकता है। अपनी परा प्रकृति को विस्मृत करने के ही कारण वह अपने को शरीर समझ बैठता है और इसीलिए कष्ट पाता है। कृष्णभावनामृत के द्वारा वह अपनी वास्तविक स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकता है और इस देह-बन्धन से मुक्त हो सकता है। अतः ज्योंही कोई कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है तुरन्त ही वह शारीरिक कार्यों से सर्वथा विलग हो जाता है। ऐसे संयमित जीवन में, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन आ जाता है, वह नौ द्वारों वाले नगर में सुखपूर्वक निवास करता है। ये नौ द्वार इस प्रकार हैं–

नवद्वारे पूरे देहि हंसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥

“जीव के शरीर के भीतर वास करने वाले भगवान ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं। यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है। बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान की भाँति मुक्त हो जाता है।” [2]अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक दोनों कर्मों से मुक्त रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व – समस्त; कर्माणि – कर्मों को; मनसा – मन से; संन्यस्य – त्यागकर; आस्ते – रहता है; सुखम् – सुख में; वशी – संयमी; नव-द्वारे – नौ द्वारों वाले; पूरे – नगर में; देही – देहवान् आत्मा; न – नहीं; एव – निश्चय ही; कुर्वन् – करता हुआ; न – नहीं; कारयन् – कराता हुआ।
  2. श्वेताश्वतर उपनिषद 3.18

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