श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 187

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥[1]

भावार्थ

भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।

तात्पर्य

भगवद्गीता के अनुसार साधु (पवित्र पुरुष) कृष्णभावनाभावित व्यक्ति है। अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो, तो उसे साधु समझना चाहिए। दुष्कृताम उन व्यक्तियों के लिए आया है, जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते। ऐसे दुष्कृताम या उपद्रवी, मुर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं, भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हो। इसके विपरीत यदि कोई शत-प्रतिशत कृष्णभावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है। जहाँ तक अनीश्ववादियों का प्रश्न है, भगवान के लिए आवश्यक नहीं कि वे इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वे रावन तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे। भगवान के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं। किन्तु भगवान तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरन्तर तंग किये जाते हैं। असुर भक्त को तंग करता है, भले ही वह उसका सगा-सम्बन्धी क्यों न हो। यद्यपि प्रह्लाद महाराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, किन्तु तो भी वे अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे। इसी प्रकार कृष्ण की माता देवकी यद्यपि कंस की बहन थीं, किन्तु उन्हें तथा उनके पति वासुदेव को इसीलिए दण्डित किया गया था क्योंकि उनसे कृष्ण को जन्म लेना था। अतः भगवान कृष्ण मुख्यतः देवकी के उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे, कंस को मारने के लिए नहीं। किन्तु ये दोनों कार्य एकसाथ सम्पन्न हो गये। अतः यह कहा जाता है कि भगवान भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परित्राणाय – उद्धार के लिए; साधूनाम् – भक्तों के; विनाशाय – संहार के लिए; च – तथा; दुष्कृताम् – दुष्टों के; धर्म – धर्म के; संस्थापन-अर्थाय – पुनः स्थापित करने के लिए; सम्भवामि – प्रकट होता हूँ; युगे – युग; युगे – युग में।

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