श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 254

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग - कृष्णभावनाभावित कर्म
अध्याय 5 : श्लोक- 24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥[1]

भावार्थ

जो अन्तःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्त पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।

तात्पर्य

जब तक मनुष्य अपने अन्तःकरण में सुख का अनुभव नहीं करता तब तक भला बाह्यसुख को प्राप्त कराने वाली बाह्य क्रियाओं से वह कैसे छूट सकता है? मुक्त पुरुष वास्तविक अनुभव द्वारा सुख भोगता है। अतः वह किसी भी स्थान में मौनभाव से बैठकर अन्तःकरण में जीवन के कार्यकलापों का आनन्द लेता है। ऐसा मुक्त पुरुष कभी बाह्य भौतिक सुख की कामना नहीं करता। यह अवस्था ब्रह्मभूत कहलाती है, जिसे प्राप्त करने पर भगवद्धाम जाना निश्चित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यः – जो; अन्तः-सुखः – अन्तर में सुखी; अन्तः-आरामः – अन्तर में रमण करने वाला अन्तर्मुखी; तथा – और; अन्तः-ज्योतिः – भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव – निश्चय हि; यः – जो कोई; सः – वह; योगी – योगी; ब्रह्म-निर्वाणम् – परब्रह्म में मुक्ति; ब्रह्म-भूतः – स्वरूपसिद्ध; अधिगच्छति – प्राप्त करता है।

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