श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 708

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-10


यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥[1]

भावार्थ

खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।

तात्पर्य

आहार (भोजन) का उद्देश्य आयु को बढ़ाना, मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है। इसका यही एकमात्र उद्देश्य है। प्राचीन काल में विद्वान पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे, जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो, यथा दूध के व्यंजन, चीनी, चावल, गेहूँ, फल तथा तरकारियाँ। ये भोजन सतोगुणी व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं। अन्य कुछ पदार्थ, जैसे भुना मक्का तथा गुड़ स्वयं रुचिकर न होते हुए भी दूध या अन्य पदार्थों के साथ मिलने पर स्वादिष्ट हो जाते हैं। तब वे सात्त्विक हो जाते हैं। ये सारे भोजन स्वभाव से ही शुद्ध हैं। ये मांस तथा मदिरा जैसे अस्पृश्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न हैं। आठवें श्लोक में जिन स्निग्ध (चिकने) पदार्थों का उल्लेख है, उनका पशु-वध से प्राप्त चर्बी से कोई नाता नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यात-यामम्= भोजन करने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया; गत= रसम्= स्वादरहित; पूति= दुर्गंधयुक्त; पर्युषितम्= बिगड़ा हुआ; च= भी; यत्= जो; उच्छिष्टम्= अन्यों का जूठन; अपि= भी; च= तथा; अमेध्यम्= अस्पृश्य; भोजनम्= भोजन; तामस= तमोगुणी को; प्रियम्= प्रिय।

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