श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 655

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-15


सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥15॥[1]

भावार्थ

मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।

तात्पर्य

परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं। जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों का साक्षी है। अतएव वह अपने विगतकर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है। इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है। लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है। इस प्रकार भगवान न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं। वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं। वे न केवल निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं, अपितु वे वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वस्य= समस्त प्राणियों; च= तथा; अहम्= मैं; हृदि= हृदय में; सन्निविष्टः= स्थित; मत्तः= मुझ से; स्मृतिः= स्मरणशक्ति; ज्ञानम्= ज्ञान; अपोहनम्= विस्मृतिः च= तथा; वेदैः= वेदों के द्वारा; च= भी; सर्वैः= समस्त; अहम्= मैं हूँ; एव= निश्चय ही; वेद्यः= जानने योग्य, ज्ञेय; वेदान्त-कृत्= वेदान्त के संकलनकर्ता; वेदवित्= वेदों के ज्ञाता; एव= निश्चय ही; च= तथा; अहम्= मैं।

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