श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 767

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-38


विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥38॥[1]

भावार्थ

जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है।

तात्पर्य

जब कोई युवक किसी युवती से मिलता है, तो इन्द्रियाँ युवक को प्रेरित करती हैं कि वह उस युवती को देखे, उसका स्पर्श करे और उससे संभोग करे। प्रारम्भ में इन्द्रियों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है, लेकिन अन्त में या कुछ समय बाद वही विष तुल्य बन जाता है। तब वे विलग हो जाते हैं या उनमें तलाक (विवाह-विच्छेद) हो जाता है। फिर शोक, विषाद इत्यादि उत्पन्न होता है। ऐसा सुख सदैव राजसी होता है। जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होता है, वह सदैव दुख का कारण बनता है, अतएव इससे सभी तरह से बचना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विषय= इन्द्रिय विषयाँ; इन्द्रिय= तथा इन्द्रियों के; संयोगात्= संयोग से; यत्= जो; तत्= वह; अग्रे= प्रारम्भ में; अमृत-उपमम्= अमृत के समान; परिणामे= अन्त में; विषम् इव= विष के समान; तत्= वह; सुखम्= सुख; राजसम्= राजसी; स्मृतम्= माना जाता है।

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