श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 727

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-28


अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥28॥[1]

भावार्थ

हे पार्थ! श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है। वह ‘असत्’ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म-दोनों में ही व्यर्थ जाता है।

तात्पर्य

चाहे यज्ञ हो, दान हो या तप हो, बिना आध्यात्मिक लक्ष्य के व्यर्थ रहता है। अतएव इस श्लोक में यह घोषित किया गया है कि ऐसे कार्य कुत्सित हैं। प्रत्येक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर ब्रह्म के लिए किया जाना चाहिए। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में भगवान में श्रद्धा की संस्तुति की गई है। ऐसी श्रद्धा तथा समुचित मार्गदर्शन के बिना कोई फल नहीं मिल सकता। समस्त वैदिक आदशों के पालन का चरम लक्ष्य कृष्ण को जानना है। इस सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई सफल नहीं हो सकता। इसीलिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही किसी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में कृष्णभावनामृत में कार्य करे। सब प्रकार से सफल होने का यही मार्ग है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अश्रद्धया= श्रद्धारहित; हृतम्= यज्ञ में आहुति किया गया; दत्तम= प्रदत्त; तपः= तपस्या; तप्तम्= सम्पन्न; कृतम्= किया गया; च= भी; यत्= जो; असत्= झूठा; इति= इस प्रकार; उच्यते= कहा जाता है; पार्थ= हे पृथापुत्र; न= कभी नहीं; च= भी; तत्= वह; प्रेत्य= मर कर; न उ= न तो; इह= इस जीवन में।

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