श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 645

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-7


ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥7॥[1]

भावार्थ
इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश है। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है।
तात्पर्य

इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है। जीव परमेश्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है। ऐसा नहीं है कि बद्धजीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्वर से एकाकार हो जाता है। वह सनातन का अंशरूप है। यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है। वेदवचन के अनुसार परमेश्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुतत्त्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, विष्णु तत्त्व निजी विस्तार[2] है और जीव विभिन्नांश[3] हैं। अपने स्वांश द्वारा वे भगवान राम, नृसिंह देव, विष्णुमूर्ति तथा वैकुण्ठ लोक के प्रधान देवों के रूप में प्रकट होते हैं। विभिन्नांश अर्थात जीव, सनातन सेवक होते हैं। भगवान के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशों के अपने स्वरूप होते हैं। परमेश्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतंत्रता एक है। प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है। इसी स्वातंत्र्य के दुरुपयोग से जीव बद्ध बनता है। और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है। दोनों ही अवस्था में वह भगवान के समान ही सनातन होता है। मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था में मुक्त रहता है और भगवान की दिव्य सेवा में निरत रहता है। बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है। फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मम= मेरा; एव= निश्चय ही; अंश= सूक्ष्म कण; जीव-लोके= बद्ध जीवन के संसार में; जीव-भूतः= बद्धजीव; सनातनः= शाश्वत; मनः= मन; षष्ठानि= छह; इन्द्रियाणि= इन्द्रियों समेत; प्रकृति= भौतिक प्रकृति में; स्थानि= स्थित; कर्षति= संघर्ष करता है।
  2. स्वांश
  3. पृथकीकृत अंश

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