श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 586

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-21


कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥21॥[1]

भावार्थ

प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है।

तात्पर्य

जीवों में शरीर तथा इन्द्रियों की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रकृति के कारण हैं। कुल मिलाकर 84 लाख भिन्न-भिन्न योनियाँ हैं और ये सब प्रकृतिजन्य हैं। जीव के विभिन्न इन्द्रिय-सुखों से ये योनियाँ मिलती हैं जो इस प्रकार शरीर या उस शरीर में रहने की इच्छा करता है। जब उसे विभिन्न शरीर प्राप्त होते हैं, तो वह विभिन्न प्रकार के सुख तथा दुख भोगता है। उसके भौतिक सुख-दुख उसके शरीर के कारण होते हैं, स्वयं उसके कारण नहीं। उसकी मूल अवस्था में भोग में कई सन्देह नहीं रहता, अतएव वही उसकी वास्तविक स्थिति है। वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए भौतिक जगत में आता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कार्य= कार्य; कारण= तथा कारण का; कर्तृत्वे= सृजन के मामले में; हेतुः= कारण; प्रकृतिः= प्रकृति; उच्यते= कही जाती है; पुरुषः= जीवात्मा; सुख= सुख; दुःखानाम्= तथा दुख का; भोक्तृत्वे= भोग में; हेतुः= कारण; उच्यते= कहा जाता है।

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