श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 271

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-13-14

समं कायशिरोग्रीवं धार्यन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः॥[1]

भावार्थ

योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिन्तन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बनाए।

तात्पर्य

जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज परमात्मा रूप में स्थित हैं। योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी अन्तर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अन्तर्यामी विष्णुमूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाले कृष्ण का स्वांश रूप है। जो इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपटयोग में लगा रहता है, वह निस्सन्देह अपने समय का अपव्यय करता है। कृष्ण ही जीवन के परम लक्ष्य है। हृदय के भीतर इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अनिवार्य है, अतः मनुष्य को चाहिए कि घर छोड़ दे और किसी एकान्त स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे। नित्यप्रति घर में या अन्यत्र- मैथुन-भोग करते हुए और तथाकथित योग की कक्षा में जाने मात्र से कोई योगी नहीं हो जाता। उसे मन को संयमित करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति से, जिसमें मैथुन-जीवन मुख्या है, बचना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समम् – सीधा; काय – शरीर; शिरः – सिर; ग्रीवम् – तथा गर्दन को; धारयन् – रखते हुए; अचलम् – अचल; स्थिरः – शान्त; सम्प्रेक्ष्य – देखकर; नासिका – नाक के; अग्रम् – अग्रभाग को; स्वम् – अपनी; दिशः – सभी दिशाओं में; च – भी; अनवलोकयन् – न देखते हुए; प्रशांत – अविचलित; आत्मा – मन; विगत-भीः – भय से रहित; ब्रह्मचारी-व्रते – ब्रह्मचर्य व्रत में; स्थितः – स्थित; मनः – मन को; संयम्य – पूर्णतया दमित करके; मत् – मुझ (कृष्ण) में; चित्तः – मन को केन्द्रित करते हुए; युक्तः – वास्तविक योगी; आसीत – बैठे; मत् – मुझमें; परः – चरम लक्ष्य।

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