श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 35

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-1

सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥[1]

भावार्थ

संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे।

तात्पर्य

भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा, शोक तथा अश्रु – ये सब असली आत्मा को न जानने का लक्षण हैं। शाश्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म-साक्षात्कार है। इस श्लोक में मधुसूदन शब्द महत्त्वपूर्ण है। कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण अज्ञान रूपी असुर का वध करें जिसने उसे कर्तव्य से विमुख कर रखा है। यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। डूबते हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मुर्खता होगी। अज्ञान-सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात् स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता। जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है, वह शुद्र कहलाता है, अर्थात् वह वृथा ही शोक करता है। अर्जुन तो क्षत्रिय था, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी। किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं, और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपदेश दिया। यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म-साक्षात्कार का उपदेश देता है, जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा की गई है। यह साक्षात्कार तभी सम्भव है, जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म-बोध को प्राप्त हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; तम् – अर्जुन के प्रति; तथा – इस प्रकार; कृपया – करुणा से; आविष्टम् – अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आकुल – अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम् – नेत्र; विषीदन्तम् – शोकयुक्त; इदम् – यह; वाक्यम् – वचन; उवाच – कहा; मधु-सूदनः – मधु का वध करने वाले (कृष्ण) ने।

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