श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 676

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दैवी तथा आसुरी स्वभाव
अध्याय 16 : श्लोक-7


प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥[1]

भावार्थ

जो आसुरी हैं, वे यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। उनमें न तो पवित्रता, न उचित आचरण और न ही सत्य पाया जाता है।

तात्पर्य

प्रत्येक शब्द मानव समाज में आचार-संहिताएँ होती हैं, जिनका प्रारम्भ से पालन करना होता है। विशेषतया आर्यगण, जो वैदिक सभ्यता को मानते हैं और अत्यन्त सभ्य माने जाते हैं, इनका पालन करते हैं। किन्तु जो शास्त्रीय आदशों को नहीं मानते, वे असुर समझे जाते हैं। इसलिए यहाँ पर कहा गया है कि असुर गण न तो शास्त्रीय नियमों को जानते हैं, न उनमें इनके पालन करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। उनमें अधिकांश इन नियमों को नहीं जानते और जो थोडे़ से लोग जानते भी हैं, उनमें इनके पालन करने की प्रवृत्ति नहीं होती। उन्हें न तो वैदिक आदेशों में कोई श्रृद्धा होती है, न ही वे उसके अनुसार कार्य करने के इच्छुक होते हैं। असुरगण ना तो बाहर से, न भीतर से स्वच्छ होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि स्नान करके, दन्त मंजन करके, बाल बनाकर, बस्त्र बदलकर शरीर को स्वच्छ रखें। जहाँ तक आन्तरिक स्वच्छता की बात है, मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव ईश्वर के पवित्र नामों का स्मरण करे और हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करे। असुर गण बाह्य तथा आन्तरिक स्वच्छता के इन नियमों को न तो चाहते हैं, न इनका पालन ही करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रवृत्तिम्= ठीक से कर्म करना; च= भी; निवृत्तिम्= अनुचित ढंग से कर्म न करना; च= तथा; जनाः= लोग; न= कभी नहीं; विदुः= जानते; आसुराः= आसुरी गुण के; न= कभी नहीं; शौचम्= पवित्रता; न= न तो; अपि= भी; च= तथा; आचारः= आचरण; न= कभी नहीं; सत्यम्= सत्य; तेषु= उनमें; विद्यते= होता है।

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