श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 724

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-24


तस्माद ॐ इत्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया: ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥24॥[1]

भावार्थ

अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ, दान तथा तप की समस्त क्रियाओं का शुभारम्भ सदैव ओम् से करते हैं।

तात्पर्य

ऊँ तद् विष्णोः परमं पदम्[2] विष्णु के चरणकमल परम भक्ति के आश्रय हैं। भगवान के लिए सम्पन्न हर एक क्रिया सारे कार्यक्षेत्र की सिद्धि निश्चित कर देती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तस्मात्= अतएव; ऊँ= ओम् से प्रारम्भ करके; इति= इस प्रकार; उदाहृत्य= संकेत करके; यज्ञ= यज्ञ; दान= दान; तपः= तथा तप की; क्रियाः= क्रियाएँ; प्रवर्तन्ते= प्रारम्भ होती हैं; विधान-उक्ताः= शास्त्रीय विधान के अनुसार; सततम्= सदैव; ब्रह्म-वादिनाम्= अध्यात्मवादियों या योगियों की।
  2. ऋग्वेद 1.22.20

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