श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 732

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-3


त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥3॥[1]

भावार्थ

कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी त्यागना चाहिए।

तात्पर्य

वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक कर्म हैं जिनके विषय में मतभेद है। उदाहरणार्थ, यह कहा जाता है कि यज्ञ में पशु मारा जा सकता है, फिर भी कुछ का मत है कि पशु हत्या पूर्णतया निषिद्ध है। यद्यपि वैदिक साहित्य में पशु-वध की संस्तुति हुई है, लेकिन पशु को मारा गया नहीं माना जाता है। यह बलि पशु को नवीन जीवन प्रदान करने के लिये होती है। कभी-कभी यज्ञ में मारे गये पशु को नवीन पशु-जीवन प्राप्त होता है, तो कभी वह पशु तत्क्षण मनुष्य योनि को प्राप्त हो जाता है। लेकिन इस सम्बन्ध में मनीषियों में मतभेद है। कुछ का कहना है कि पशुहत्या नहीं की जानी चाहिए और कुछ कहते हैं कि विशेष यज्ञ (बलि) के लिए यह शुभ है। अब यज्ञ-कर्म विषयक विभिन्न मतों का स्पष्टीकरण भगवान स्वयं कर रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्याज्यम्= त्याजनीय; दोष-वत्= दोष के समान; इति= इस प्रकार; एके= एक समूह के; कर्म= कर्म; प्राहुः= कहते हैं; मनीषिणः= महान चिन्तक; यज्ञ= यज्ञ; दान= दान; तपः= तथा तपस्या का; कर्म= कर्म; न= कभी नहीं; त्याज्यम्= त्यागने चाहिए; इति= इस प्रकार; च= तथा; अपरे= अन्य।

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