श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 168

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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कर्मयोग
अध्याय 3 : श्लोक- 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥[1]

भावार्थ

इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।

तात्पर्य

चूँकि शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के विभिन्न समारिक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया है, अतः भगवान कृष्ण उन स्थानों का संकेत कर रहे हैं जिससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले कि शत्रु कहाँ पर है। मन समस्त इन्द्रियों के कार्यकलापों का केन्द्र बिन्दु है, अतः जब हम इन्द्रिय-विषयों के सम्बन्ध में सुनते हैं, तो मन इन्द्रियतृप्ति के समस्त भावों का आगार बन जाता है। इस तरह मन तथा इन्द्रियाँ काम की शरणस्थली बन जाते हैं। इसके बाद बुद्धि ऐसी काम्पूर्ण रुचियों की राजधानी बन जाती है। बुद्धि आत्मा की निकट पड़ोसन है। काममय बुद्धि से आत्मा प्रभावित होता है, जिससे उसमें अहंकार उत्पन्न होता है और वह पदार्थ से तथा इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों से अपना तादात्मय कर लेता है। आत्मा को भौतिक इन्द्रियों का भोग करने की लत पड़ जाती है, जिसे वह वास्तविक सुख मान बैठता है। श्रीमद्भागवत में [2] आत्मा के इस मिथ्या स्वरूप की अत्युत्तम विवेचना की गई है–

यस्यात्मबुद्धिः कृणपे त्रिधातुके स्वधीः कल त्रादि षु भौम इज्यधीः।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि ज्ज नेष्व भिज्ञे षु स एव गोखरः॥

“जो मनुष्य इस त्रिधातु निर्मित शरीर को आत्मस्वरूप जान बैठता है, जो देह के विकारों को स्वजन समझता है, जो जन्मभूमि को पूज्य मानता है और जो तीर्थस्थलों की यात्रा दिव्य ज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के लिए नहीं, अपितु स्नान करने के लिए करता है, उसे गधा या बैल के समान समझना चाहिए।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; अस्य – इस काम का; अधिष्ठानम् – निवासस्थान; उच्यते – कहा जाता है; एतैः – इन सबों से; विमोहयति – मोहग्रस्त करता है ; एषः – यह काम; ज्ञानम् – ज्ञान को; आवृत्य – ढक कर; देहिनम् – शरीरधारी को।
  2. श्रीमद्भागवत 10.84.13

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