श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 353

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥[1]

भावार्थ

हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान का विराट रूप, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ

तात्पर्य

यह भौतिक प्रकृति निरन्तर परिवर्तित होती रहती है। सामान्यतः भौतिक शरीरों को छह अवस्थाओं से निकलना होता है– वे उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक रहते हैं, कुछ गौण पदार्थ उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में विलुप्त हो जाते हैं। यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है। यह किसी निश्चित समय में उत्पन्न की जताई है और किसी निश्चित समय में विनष्ट कर दी जाती है। परमेश्वर का विराट स्वरूप की धारणा, जिसमें सारे देवता तथा उनके लोक सम्मिलित हैं, अधिदैवत कहलाती है। प्रत्येक शरीर में आत्मा सहित परमात्मा का वास होता है, जो भगवान कृष्ण का अंश स्वरूप है। यह परमात्मा अधियज्ञ कहलाता है और हृदय में स्थित होता है। इस श्लोक के प्रसंग में एव शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा भगवान बल देकर कहते हैं कि परमात्मा उनसे भिन्न नहीं है। यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा के पास आसीन है और आत्मा के कार्यकलापों का साक्षी है तथा आत्मा की विभिन्न चेतनाओं का उद्गम है। यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा को मुक्त भाव से कार्य करने की छूट देता है और उसके कार्यों पर निगरानी रखता है। परमेश्वर के इन विविध स्वरूपों के सारे कार्य उस कृष्णभावनाभावित भक्त को स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं, जो भगवान की दिव्य सेवा में लगा रहता है। अधिदैवत नामक भगवान के विराट स्वरूप का चिन्तन उन नवदीक्षितों के लिए है, जो भगवान के परमात्मा स्वरूप तक नहीं पहुँच पाते। अतः उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे उस विराट पुरुष का चिन्तन करें जिसके पाँव अधोलोक हैं, जिसके नेत्र सूर्य तथा चन्द्र हैं और जिसका सिर उच्च्लोक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अधिभूतम् – भौतिक जगत्; क्षरः – निरन्तर परिवर्तनशील; भावः – प्रकृति; पुरुषः – सूर्य, चन्द्र जैसे समस्त देवताओं सहित विराट रूप; च – तथा; अधिदैवतम् – अधिदैव नामक; अधियज्ञः – परमात्मा; अहम् – मैं (कृष्ण); एव – निश्चय ही; अन्न – इस; देहे – शरीर में; देह-भृताम् – देहधारियों में; वर – हे श्रेष्ठ।

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