श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 790

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-56


सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‌व्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥56॥[1]

भावार्थ

मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है।

तात्पर्य

मद्-व्यपाश्रयः शब्द का अर्थ है परमेश्वर के सरंक्षण में। भौतिक कल्मष से रहित होने के लिए शुद्ध भक्त परमेश्वर या उनके प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के निर्देशन में कर्म करता है। उसके लिए समय की कोई सीमा नहीं है। वह सदा, चौबीसों घंटे, शत प्रतिशत परमेश्वर के निर्देशन में कार्यों में संलग्न रहता है। ऐसे भक्त पर जो कृष्णभावनामृत में रत रहता है, भगवान अत्यधिक दयालु होते हैं। वह समस्त कठिनाइयों के बावजूद अन्ततोगत्वा दिव्यधाम या कृष्णलोक को प्राप्त करता है। वहाँ उसका प्रवेश सुनिश्चित रहता है, इसमें कोई संशय नहीं है। उस परम धाम में कोई परिवर्तन नहीं होता, वहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्वत, अविनश्वर तथा ज्ञानमय होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व= सम्मत; कर्माणि= कार्यकलाप को; अपि= यद्यपि; सदा= सदैव; कुर्वाणः= करते हुए; मत्-व्यपाश्रयः= मेरे संरक्षण में; मत्-प्रसादात्= मेरी कृपा से; अवाप्नोति= प्राप्त करता है; शाश्वतम्= नित्य; पदम्= धाम को; अव्ययम्= अविनाशी।

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