श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 577

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-15


सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥15॥[1]

भावार्थ

परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्त्रोत हैं, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं। वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं। वे प्रकृति के गुणों से परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं।

तात्पर्य

यद्यपि परमेश्वर समस्त जीवों की समस्त इन्द्रियों के स्त्रोत हैं, फिर भी जो जीवों की तरह उनके भौतिक इन्द्रियाँ नहीं होतीं। वास्तव में जीवों में आध्यात्मिक इन्द्रियाँ होती हैं, लेकिन बद्ध जीवन में वे भौतिक तत्त्वों से आच्छादित रहती है, अतएव इन्द्रिय कार्यों का प्राकट्य पदार्थ द्वारा होता है। परमेश्वर की इन्द्रियाँ इस तरह आच्छादित नहीं रहतीं। उनकी इन्द्रियाँ भौतिक दिव्य होती हैं, अतएव निर्गुण कहलाती हैं। गुण का अर्थ है भौतिक गुण, लेकिन उनकी इन्द्रियाँ हमारी भौतिक आवरण से रहित होती हैं। यह समझ लेना चाहिए कि उनकी इन्द्रियाँ हमारी इन्द्रियों जैसी नहीं होतीं। यद्यपि वे हमारे समस्त ऐन्द्रिय कार्यों के स्त्रोत हैं, लेकिन उनकी इन्द्रियाँ दिव्य होती हैं, जो कल्मषरहित होती हैं। इसकी बड़ी ही सुन्दर व्याख्या श्वेताश्वर उपनिषद् में[2] अपाणिपादो जवनो ग्रहीता श्लोक में हुई है। भगवान् के हाथ भौतिक कल्मषों से ग्रस्त नहीं होते, अतएव उन्हें जो कुछ अर्पित किया जाता है, उसे वे अपने हाथों से ग्रहण करते हैं। बद्धजीव तथा परमात्मा में यही अन्तर है। उनके भौतिक नेत्र नहीं नहीं होते, फिर भी उनके नेत्र होते हैं, अन्यथा वे कैसे देख सकते? वे सब कुछ देखते हैं- भूत, वर्तमान तथा भविष्य। वे जीवों के हृदय में वास करते हैं, और वे जानते हैं कि भूतकाल में हमने क्या किया, अब क्या कर रहे हैं और भविष्य में क्या होने वाला है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्व=समस्त; इन्द्रिय=इन्द्रियों का; गुण=गुणों का; आभासम्=मूल स्त्रोत; सर्व=समस्त; इन्द्रिय=इन्द्रियों से; विवर्जितम्=विहीन; असक्तम्=अनासक्त; सर्वभृत्=प्रत्येक का पालनकर्ता; च=भी; एव=निश्चय ही; निर्गुणम्= गुणविहीन; गुण=भोक्तृ=गुणों का स्वामी; च=भी।
  2. 3.19

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