श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 372

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-22

पुरुषः स परः पार्थ भक्तया लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।[1]

भावार्थ

भगवान, जो सबसे महान हैं. अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।

तात्पर्य

यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि जिस परमधाम से फिर लौटना नहीं होता, वह परमपुरुष कृष्ण का धाम है। ब्रह्मसंहिता में इस परमधाम को आनन्दचिन्मय रस कहा गया है जो ऐसा स्थान है जहाँ सभी वस्तुएँ परम आनन्द से पूर्ण हैं। जितनी भी विविधता प्रकट होती है वह सब इसी परमानन्द का गुण है– वहाँ कुछ भी भौतिक नहीं है। यह विविधता भगवान के विस्तार के साथ हो विस्तृत होती जाती है, क्योंकि वहाँ की सारी अभिव्यक्ति पराशक्ति के कारण है, जैसा कि सातवें अध्याय में बताया गया है। जहाँ तक इस भौतिक जगत का प्रश्न है, यद्यपि भगवान अपने धाम में ही सदैव रहते हैं, तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति? (माया) द्वारा सर्वव्याप्त हैं। इस प्रकार वे अपनी परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वत्र– भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ब्रह्माण्डों में– उपस्थित रहते हैं। यस्यान्तःस्थानि का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु उनमें या उनकी परा या अपरा शाकी में निहित है। इन्हीं दोनों शक्तियों के द्वारा भगवान सर्वव्यापी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुरुषः – परमपुरुष; सः – वह; परः – परं, जिनसे बढ़कर कोई नहीं है; पार्थ – हे पृथापुत्र; भक्त्या – भक्ति के द्वारा; लभ्यः – प्राप्त किया जा सकता है; तु – लेकिन; अनन्यया – अनन्य, अविचल; यस्य – जिसके; अन्तः-स्थानि – भीतर; भूतानि – यह सारा जगत; येन – जिनके द्वारा; सर्वम् – समस्त; इदम् – जो कुछ हम देख सकते हैं; ततम् – व्याप्त है।

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