श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 536

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-8


मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:।।[1]

भावार्थ
मुझ भगवान में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी सारी बुद्धि मुझ में लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।
तात्पर्य

जो भगवान कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्बंध होता है। अतएव इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं कि प्रारम्भ से ही उसकी स्थिति दिव्य होती है। भक्त कभी भौतिक धरातल पर नहीं रहता- वह सदैव कृष्ण में वास करता है। भगवान का पवित्र नाम तथा भगवान अभिन्न हैं। अत: जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं। जब वह कृष्ण को भोग चढ़ता है, तो कृष्ण प्रत्यक्ष रूस से उसे ग्रहण करते हैं और इस तरह भक्त इस उच्छिष्ट (जूठन) को खाकर कृष्णमय हो जाता है। जो इस प्रकार सेवा में नहीं लगता, वह नहीं समझ पाता कि यह सब कैसे होता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसी विधि की संस्तुति की गई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मयि=मुझमें; एव=निश्चय ही; मन=मन को; आधत्स्व=स्थिर करो; मयि=मुझमें; बुद्धिम्-बुद्धि को; निवेशय=लगाओ; निवसिष्यसि=तुम निवास करोगे; मयि=मुझमें; एव=निश्चय ही; अत:ऊर्ध्वम्=पत्पश्चात्; न=कभी नहीं; संशय=संदेह।

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