श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 304

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-47

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥[1]

भावार्थ

और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।

तात्पर्य

यहाँ पर भजते शब्द महत्त्वपूर्ण है। भजते भज धातु से बना है जिसका अर्थ है-सेवा करना। अंग्रेज़ी शब्द वर्शिप (पूजन) से यह भाव व्यक्त नहीं होता, क्योंकि इससे पूजा करना, सम्मान दिखाना तथा योग्य का सम्मान करना सूचित होता है। किन्तु प्रेम तथा श्रद्धापूर्वक सेवा तो श्रीभगवान के निमित्त है। किसी सम्माननीय व्यक्ति या देवता की पूजा न करने वाले को अशिष्ट कहा जा सकता है, किन्तु भगवान् की सेवा न करने वाले की तो पूरी तरह भर्त्सना की जाती है | प्रत्येक जीव भगवान का अंशस्वरूप है और इस तरह प्रत्येक जीव क अपने स्वभाव के अनुसार भगवान की सेवा करनी चाहिए। ऐसा न करने से वह नीचे गिर जाता है। भागवत पुराण में[2] इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है –

य एषां पुरुषं साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम्।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्भ्रष्टाः पतन्त्यधः॥

“जो मनुष्य अपने जीवनदाता आद्य भगवान की सेवा नहीं करता और अपने कर्तव्य में शिथिलता बरतता है, वह निश्चित रूप से अपनी स्वाभाविक स्थिति से नीचे गिरता है।”

भागवत पुराण के इस श्लोक में भजन्ति शब्द व्यवहृत हुआ है। भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि वर्शिप (पूजन) का प्रयोग देवताओं या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है-अवजानन्ति मां मूढाः– केवल मुर्ख तथा धूर्त भगवान् कृष्ण का उपहास करते हैं। ऐसे मुर्ख भगवद्भक्ति की प्रवृत्ति न होने पर भी भगवद्गीता का भाष्य कर बैठते हैं। फलतः वे भजन्ति तथा वर्शिप (पूजन) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योगिनाम् – योगियों में से; अपि – भी; सर्वेषाम् – समस्त प्रकार के; मत्-गतेन – मेरे परायण, सदैव मेरे विषय में सोचते हुए; अन्तः-आत्मना – अपने भीतर; श्रद्धावान् – पूर्ण श्रद्धा सहित; भजते – दिव्य प्रेमाभक्ति करता है; यः – जो; माम् – मेरी (परमेश्वर की); सः – वह; मे – मेरे द्वारा; युक्त-तमः – परम योगी; मतः – माना जाता है।
  2. 11.5.3

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