श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 541

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-11


अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तु मद्योगमाश्रित:।
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्।।[1]

भावार्थ

किंतु यदि तुम मेरे इस भावनामृत में कर्म करने में असमर्थ हो तो तुम अपने कर्म के समस्त फलो को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करो।

तात्पर्य

हो सकता है कि कोई व्यक्ति सामजिक, परिवारिक या धार्मिक कारणों से या किसी अन्य अवरोधों के कारण कृष्णभावनामृत के कार्यकलापों के प्रति सहानुभूति तक दिखा पाने में अक्षम रहे। यदि वह अपने को प्रत्यक्ष रूप से इन कार्यकलापों के प्रति जोड़ ले तो हो सकता है कि पारिवारिक सदस्य विरोध करें, या अन्य कार्यकलापों के प्रति जोड़ ले तो हो सकता है कि पारिवारिक सदस्य विरोध करें, या अन्य कठिनाइयों उठ खड़ी हों। जिस व्यक्ति के साथ ऐसी समस्याएँ लगी हों, उसे यह सलाह दी जाती है कि वह अपने कार्यकलापों के संचित फल को किसी शुभ कार्य में लगा दे। ऐसी विधियाँ वेदिक नियमों में वर्णित हैं। ऐसे अनेक यज्ञों तथा पुण्य कार्यों अथवा विशेष कार्यों के वर्णन हुए हैं, जिनमें अपने पिछले कार्यों के फलों को प्रयुक्त किया जा सकता है। इससे मनुष्य धीरे-धीरे ज्ञान से स्तर तक उठता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथ=यद्यपि; एतत्=यह; अपि=भी; अशक्त:=असमर्थ; असि=हो; कर्तुम्=करने में; मत्=मरे प्रति; योगम्=भक्ति में; आश्रित=निर्भर; सर्व-कर्म=समस्त कर्मों के; फल=फल का; त्यागम्=त्याग; तत:=तव; कुरु=करो; यत-आत्मवान्=आत्मस्थित।

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