श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 520

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-54

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥[1]

भावार्थ

हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।

तात्पर्य
कृष्ण को केवल अनन्य भक्तियोग द्वारा समझा जा सकता है। इस श्लोक में वे इसे स्पष्टतया कहते हैं, जिससे ऐसे अनाधिकारी टीकाकार जो भगवद्गीता को केवल कल्पना के द्वारा समझाना चाहते हैं, यह जान सकें कि वे समय का अपव्यय कर रहे हैं। कोई यह नहीं जान सकता कि वे किस प्रकार चतुर्भुज रूप में माता के गर्भ से उत्पन्न हुए और फिर तुरन्त ही दो भुजाओं वाले रूप में बदल गये। ये बातें न तो वेदों के अध्ययन से समझी जा सकती है, न दार्शनिक चिंतन द्वारा। अतः यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि न तो कोई उन्हें देख सकता है और न इन बातों का रहस्य ही समझ सकता है किन्तु जो लोग वैदिक साहित्य के अनुभवी विद्यार्थी हैं वे अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथों के माध्यम से उन्हें जान सकते हैं। इसके लिए अनेक विधि-विधान हैं और यदि कोई सचमुच उन्हें जानना चाहता है तो उसे प्रमाणिक ग्रंथों में उल्लिखित विधियों का पालन करना चाहिए। वह इन नियमों के अनुसार तपस्या कर सकता है। उदाहरणार्थ, कठिन तपस्या के हेतु वह कृष्णजन्माष्टमी को, जो कृष्ण का आविर्भाव दिवस है, तथा मास की दोनों एकादशियों को उपवास कर सकता है। जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, यह बात साफ है कि उन कृष्ण भक्तों को यह दान दिया जाय जो संसार भर में कृष्ण-दर्शन को या कृष्णभावनामृत को फैलाने में लगे हुए हैं। कृष्णभावनामृत मानवता के लिए वरदान है। रूप गोस्वामी ने भगवान् चैतन्य की प्रशंसा परम दानवीर के रूप में की है, क्योंकि उन्होंने कृष्ण प्रेम का मुक्तरीति से विस्तार किया, जिसे प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है। अतः यदि कोई कृष्णभावनामृत का प्रचार करने वाले व्यक्तियों को अपना धन दान में देता है, तो कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए दिया गया यह दान संसार का सबसे बड़ा दान है। और यदि कोई मंदिर में जाकर विधिपूर्वक पूजा करता है (भारत के मन्दिरों में सदा कोई न कोई मूर्ति, सामान्यतया विष्णु या कृष्ण की मूर्ति रहती है) तो यह भगवान् की पूजा करके तथा उन्हें सम्मान प्रदान करके उन्नति करने का अवसर होता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भक्त्या - भक्ति से; तु - लेकिन; अनन्यया - सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित; शक्यः - सम्भव; अहम् - मैं; एवम्-विधः - इस प्रकार; अर्जुन - हे अर्जुन; ज्ञातुम् - जानने; द्रष्टुम् - देखने; च - तथा; तत्त्वेन - वास्तव में; प्रवेष्टुम् - प्रवेश करने; च - भी; परन्तप - हे बलिष्ठ भुजाओं वाले।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः