श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक- 45
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संश्रुद्धकिल्बिषः।
और जब योगी कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात सिद्धि-लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है।
सदाचारी, धनवान या पवित्र कुल में उत्पन्न पुरुष योगाभ्यास के अनुकूल परिस्थिति से सचेष्ट हो जाता है| अतः वह दृढ संकल्प करके अपने अधूरे कार्य को करने में लग जाता है और इस प्रकार वह अपने को समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध कर लेता है। समस्त कल्मष से मुक्त होने पर उसे परम सिद्धि-कृष्णभावनामृत – प्राप्त होती है। कृष्णभावनामृत ही समस्त कल्मष से मुक्त होने की पूर्ण अवस्था है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में[1] हुई है– येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। “अनेक जन्मों तक पुण्यकर्म करने से जब कोई समस्त कल्मष तथा मोहमय द्वन्द्वों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तभी वह भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग पाता है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.28
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