श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 216

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-30

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्॥[1]

भावार्थ

ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञों के फल रूपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की ओर बढ़ते जाते हैं।

तात्पर्य

विभिन्न प्रकार के यज्ञों (यथा द्रव्ययज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ तथा योगयज्ञ) की उपर्युक्त व्याख्या से यह देखा जाता है कि इन सबका एक ही उद्देश्य है और वह हैं इन्द्रियों का निग्रह। इन्द्रियतृप्ति ही भौतिक अस्तित्व का मूल कारण है, अतः जब तक इन्द्रियतृप्ति से भिन्न धरातल पर स्थित न हुआ जाये, तब तक सच्चिदानन्द के नित्य धरातल तक उठ पाना सम्भव नहीं है। यह धरातल नित्य आकाश या ब्रह्म आकाश में है। उपर्युक्त सारे यज्ञों से संसार के पापकर्मों से विमल हुआ जा सकता है। जीवन में इस प्रगति से मनुष्य न केवल सुखी और ऐश्वर्यवान बनता है, अपितु अन्त में वह निराकार ब्रह्म के साथ तादात्म्य के द्वारा श्रीभगवान कृष्ण की संगति प्राप्त करके भगवान के शाश्वत धाम को प्राप्त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वे – सभी; अपि – ऊपर से भिन्न होकर भी; एते – ये; यज्ञ-विदः – यज्ञ करने के प्रयोजन से परिचित; यज्ञ-क्षपित – यज्ञ करने के कारण शुद्ध हुआ; कल्मषाः – पापकर्मों से; यज्ञ-शिष्ट – ऐसे यज्ञ करने के फल का; अमृत-भुजः – ऐसा अमृत चखने वाले; यान्ति – जाते हैं; ब्रह्म – परम ब्रह्म; सनातनम् – नित्य आकाश को।

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