श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
विराट रूप
अध्याय-11 : श्लोक-43
पितासि लोकस्य चराचरस्य भावार्थ तात्पर्य
भगवान् कृष्ण के भी सामान्य व्यक्ति की तरह इन्द्रियाँ तथा शरीर हैं, किन्तु उनके लिए अपनी इन्द्रियों, अपने शरीर, अपने मन तथा स्वयं में कोई अन्तर नहीं रहता। जो लोक मुर्ख हैं, वे कहते हैं कि कृष्ण अपने आत्मा, मन, हृदय तथा अन्य प्रत्येक वस्तु से भिन्न हैं। कृष्ण तो परम हैं, अतः उनके कार्य तथा शक्तियाँ भी सर्वश्रेष्ठ हैं। यह भी कहा जाता है कि यद्यपि हमारे सामना उनकी इन्द्रियाँ नहीं है , तो भी वे सारे ऐन्द्रिय कार्य करते हैं। अतः उनकी इन्द्रियाँ न तो सीमित हैं, न ही अपूर्ण हैं। न तो कोई उनसे बढ़कर है, न उनके तुल्य कोई है। सभी लोग उनसे घट कर हैं । परम पुरुष का ज्ञान, शक्ति तथा कर्म सभी कुछ दिव्य हैँ। भगवद्गीता में (4.9) कहा गया है - जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । जो कोई कृष्ण के दिव्य शरीर, कर्म तथा पूर्णता को जान लेता है, वह इस शरीर को छोड़ने के बाद उनके धाम को जाता है और फिर इस दुखमय संसार में वापस नहीं आता। अतः मनुष्य को जान लेना चाहिए कि कृष्ण के कार्य अन्यों से भिन्न होते हैं। सर्वश्रेष्ठ मार्ग तो यह है कि कृष्ण के नियमों का पालन किया जाय, इससे मनुष्य सिद्ध बनेगा। यह भी कहा गया है कि कोई ऐसा नहीं जो कृष्ण का गुरु बन सके, सभी तो उनके दास हैं। चैतन्य चरितामृत (आदि 5.142) से इसकी पुष्टि होती है- एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य- केवल कृष्ण ईश्वर हैं, शेष सभी उनके दास हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनके आदेश का पालन करता है। ऐसा कोई नहीं जो उनके आदेश का उल्लंघन कर सके। प्रत्येक व्यक्ति उनकी अध्यक्षता में होने के कारण उनके निर्देश के अनुसार कार्य करता है। जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि वे समस्त कारणों के कारण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पिता - पिता; असि - हो; लोकस्य - पूरे जगत के; चर - सचल; अचरस्थ - तथा अचलों के; त्वम् - आप हैं ; अस्य - इसके; पूज्यः - पूज्य; च - भी; गुरुः - गुरु; गरीयान् - यशस्वी, महिमामय; न - कभी नहीं; त्वत्-समः - आपके तुल्य; अस्ति - है; अभ्यधिकः - बढ़ कर; कुतः - किस तरह संभव है; अन्यः - दूसरा; लोक-त्रये - तीनों लोकों में; अपि - भी; अप्रतिम-प्रभाव - हे अचिन्त्य शक्ति वाले।
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