श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 443

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-12-13


अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।[1]

भावार्थ

अर्जुन ने कहा- आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।

तात्पर्य

इन दो श्लोकों में भगवान आधुनिक दार्शनिक को अवसर प्रदान करते हैं, क्योंकि यहाँ यह स्पष्ट है कि परमेश्वर जीवात्मा से भिन्न हैं। इस अध्याय के चार महत्त्वपूर्ण श्लोकों को सुनकर अर्जुन की सारी शंकाएँ जाती रहीं और उसने कृष्ण को भगवान स्वीकार कर लिया। उसने तुरन्त ही उद्घोष किया “आप परब्रह्म हैं।” इसके पूर्व कृष्ण कह चुके हैं कि वे प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी के आदि कारण हैं। प्रत्येक देवता तथा प्रत्येक मनुष्य उन पर आश्रित है। वे अज्ञानवश अपने को भगवान से परम स्वतन्त्र मानते हैं। ऐसा अज्ञान भक्ति करने से पूरी तरह मिट जाता है। भगवान ने पिछले श्लोक में इसकी पूरी व्याख्या की है। अब भगवत्कृपा से अर्जुन उन्हें परमसत्य रूप में स्वीकार कर रहा है, जो वैदिक आदेशों के सर्वथा अनुरूप है। ऐसा नहीं है कि परम सखा होने के कारण अर्जुन कृष्ण की चाटुकारी करते हर उन्हें परमसत्य भगवान कह रहा है। इन दो श्लोकों में अर्जुन जो भी कहता है, उसकी पुष्टि वैदिक सत्य द्वारा होती है। वैदिक आदेश इसकी पुष्टि करते हैं कि जो कोई परमेश्वर की भक्ति करता है, वही उन्हें समझ सकता है, अन्य कोई नहीं। इस श्लोकों में अर्जुन द्वारा कहे शब्द वैदिक आदेशों द्वारा पुष्ट होते हैं।

केन उपनिषद में कहा गया है परब्रह्म प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं और कृष्ण पहले ही कह चुके हैं कि सारी वस्तुएँ उन्हीं पर आश्रित हैं। मुण्डक उपनिषद में पुष्टि की गई है कि जिन परमेश्वर पर सब कुछ आश्रित है, उन्हें उनके चिन्तन में रत रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है। कृष्ण का यह निरन्तर चिन्तन स्मरणम है, जो भक्ति की नव विधियों में से हैं। भक्ति के द्वारा ही मनुष्य कृष्ण की स्थिति को समझ सकता है और इस भौतिक देह से छुटकारा पा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; परम्-परम; ब्रह्म-सत्य; परम्-परम; धाम-आधार; पवित्रम्-शुद्ध; परमम्-परम; भवान्-आप; पुरुषम्-पुरुष; शाश्वतम्-नित्य; दिव्यम्-दिव्य; आदि-देवम्-आदि स्वामी; अजम्-अजन्मा; विभुम्-सर्वोच्च; आहुः- कहते हैं; त्वाम्-आपको; ऋषयः-साधुगण; सर्वे-सभी; देव-ऋषि-देवताओं के ऋषि; नारदः-नारद; तथा-भी; असितः-असित; देवलः-देवल; व्यासः-व्यास; स्वयम्-स्वयं; च-भी; एव-निश्चय ही; ब्रवीषि-आप बता रहे हैं; मे-मुझको।

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