श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 632

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति के तीन गुण
अध्याय 14 : श्लोक-26


मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥26॥[1]

भावार्थ

जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है।

तात्पर्य

यह श्लोक अर्जुन के तृतीय प्रश्न के उत्तरस्वरूप है। प्रश्न है- दिव्य स्थिति प्राप्त करने का साधन क्या है? जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह भौतिक जगत प्रकृति के गुणों के चमत्कार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है। मनुष्य को कर्मों से विचलित नहीं होना चाहिए, उसे चाहिए कि अपनी चेतना ऐसे कार्यों में न लगाकर उसे कृष्णकार्यों में लगाए। कृष्णकार्य भक्तियोग के नाम से विख्यात हैं, जिनमें सदैव कृष्ण के लिए कार्य करना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. माम्= मेरी; च= भी; यः= जो व्यक्ति; अव्यभिचारेण= बिना विचलित हुए; भक्ति-योगेन= भक्ति से; सेवते= सेवा करता है; सः= वह; गुणान्= प्रकृति के गुणों को; समतीत्य= लाँघ कर; एतान्= इन सब; ब्रह्म= भूयाय= ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ; कल्पते= हो जाता है।

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