श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 545

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-13-14


अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एवं च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी।।13।।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:।।14।।[1]

भावार्थ

जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।

तात्पर्य

शुद्ध भक्ति पर पुन: आकर भगवान इन दोनों श्लोकों में शुद्ध भक्त के दिव्य गुणों का वर्णन कर रहे हैं। शुद्ध भक्त किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता, न ही वह किसी के प्रति ईर्ष्यालु होता है। न वह अपने शत्रु का शत्रु बनता है। वह तो सोचता है "यह व्यक्ति मेरे विगत दुष्कर्मों के कारण मेरा शत्रु बना हुआ है, अतएव विरोध करने की अपेक्षा कष्ट सहना अच्छा है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अद्वेष्टा=ईर्ष्याविहीन; सर्व-भूतानाम्=समस्त जीवों के प्रति; मैत्र:=मेत्रीभाव वाला: करुण:=दयालु; एव=निश्चय ही; च=भी; निर्मम:=स्वामित्व की भावना से रहित; निरहंकार= मिथ्या अहंकार से रहित; सम=समभाव; दु:ख=दुख; सुख=तथा सुख में; क्षमी=क्षमावान; संतुष्ट:=प्रसन्न, तुष्ट; सततम्=निरंतर; योगी=भक्ति में निरत; यत-आत्मा=आत्मसंयमी; दृढ-निश्चय:=संकल्प सहित; मयि=मुझमें; अर्पित=संलग्न; मन:=मन को; बुद्धि=तथा बुद्धि को; य:=जो; मत्-भक्त:=मेरा भक्त; स:=वह; मे=मेरा; प्रिय:=प्यारा।

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