श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 351

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवत्प्राप्ति
अध्याय 8 : श्लोक-3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥[1]

भावार्थ

भगवान ने कहा – अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।

तात्पर्य

ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता। किन्तु ब्रह्म से परे परब्रह्म होता है। ब्रह्म का अर्थ है जीव और परब्रह्म का अर्थ भगवान है। जीव का स्वरूप भौतिक जगत में उसकी स्थिति से भिन्न होता है। भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प्रभुत्व जताना है, किन्तु आध्यात्मिक चेतना या कृष्णभावनामृत में उसकी स्थिति परमेश्वर की सेवा करना है। जब जीव भौतिक चेतना में होता है, तो उसे इस संसार में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं। यह भौतिक चेतना के कारण कर्म अथवा विविध सृष्टि कहलाता है।

वैदिक साहित्य में जीव को जीवात्मा तथा ब्रह्म कहा जाता है, किन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता। जीवात्मा विभिन्न स्थितियाँ ग्रहण करता है– कभी वह अन्धकार पूर्ण भौतिक प्रकृति में मिल जाता है और पदार्थ को अपना स्वरूप मान लेता है, तो कभी वह परा आध्यात्मिक प्रकृति के साथ मिल जाता है। इसीलिए वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है। भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के साथ अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौतिक या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है। भौतिक प्रकृति में वह चौरासी लाख योनियों में से कोई भी शरीर धारण कर सकता है, किन्तु आध्यात्मिक प्रकृति में उसका एक ही शरीर होता है। भौतिक प्रकृति में वह अपने कर्म अनुसार कभी मनुष्य रूप में प्रकट होता है तो कभी देवता, पशु, पक्षी आदि के रूप में प्रकट होता है। स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा वहाँ का सुख भोगने की इच्छा से वह कभी-कभी यज्ञ सम्पन्न करता है, किन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः मनुष्य रूप में पृथ्वी पर वापस आ जाता है। यह प्रक्रिया कर्म कहलाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; अक्षरम् – अविनाशी; ब्रह्म – ब्रह्म; परमम् – दिव्य; स्वभावः – सनातन प्रकृति; अध्यात्मम् – आत्मा; उच्यते – कहलाता है; भूत-भाव-उद्भव-करः – जीवों के भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाला; विसर्गः – सकाम कर्म; संज्ञितः – कहलाता है।

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